30-04-23 | प्रात:मुरलीओम् शान्ति”अव्यक्त-बापदादा” | रिवाइज: 17-11-94 मधुबन |
हर गुण व शक्ति के अनुभवों में खो जाना अर्थात् खुशनसीब बनना
आज प्यार के सागर बापदादा अपने प्यार स्वरूप बच्चों से मिलन मना रहे हैं। बाप का भी प्यार बच्चों से अति है और बच्चों का भी प्यार बाप से अति है। ये प्यार की डोर बच्चों को भी खींचकर लाती है और बाप को भी खींचकर लाती है। बच्चे जानते हैं कि ये परमात्म प्यार कितना सुखदायी है। अगर एक सेकेण्ड भी प्यार में खो जाते हो तो अनेक दु:ख भूल जाते हैं। सुख के झूले में झूलने लगते हो। ऐसा अनुभव है ना? बापदादा देख रहे हैं कि दुनिया के हिसाब से आत्मायें कितनी साधारण हैं लेकिन भाग्य कितना श्रेष्ठ है! जो सारे कल्प में, चाहे कोई धर्म आत्मा हो, महान् आत्मा हो, लेकिन ऐसा श्रेष्ठ भाग्य न तो किसी को प्राप्त है, न हो सकता है। तो अति साधारण और अति श्रेष्ठ भाग्यवान। बापदादा को साधारण आत्मायें ही पसन्द हैं, क्यों? बाप स्वयं भी साधारण तन में आते हैं। कोई राजा के तन में या रानी के तन में नहीं आते। कोई धर्मात्मा, महात्मा के तन में नहीं आते। साधारण तन में स्वयं भी आते हैं और बच्चे भी साधारण ही आते हैं। आज का करोड़पति भी साधारण है। साधारण बच्चों में भावना है। और बाप को भावना चाहिये, देह भान वाले नहीं चाहिए। जितना बड़ा होगा उतना भावना नहीं होगी लेकिन भान होगा। तो बाप को भावना का फल देना है और भावना साधारण आत्माओं में होती है। नामीग्रामी आत्माओं के पास न भावना है, न समय है। तो बाप देख रहे हैं कि कितने साधारण और कितने श्रेष्ठ भावना का फल प्राप्त कर रहे हैं इसलिये ड्रामानुसार संगमयुग में साधारण बनना ये भी भाग्य की निशानी है क्योंकि संगम पर ही भाग्यविधाता भाग्य की श्रेष्ठ लकीर खींच रहे हैं और साथ-साथ भाग्य की लकीर खींचने का कलम भी बच्चों को दे दिया है। कलम मिली है ना? भाग्य की लकीर खींचना आता है? कितनी लम्बी लकीर खींची है? छोटी-मोटी तो नहीं खींच ली? जितना चाहे उतना भाग्य बना सकते हो। खुली छुट्टी है और सभी को छुट्टी है। चाहे नये हो, चाहे पुराने हो, सप्ताह कोर्स किया, बाप को पहचाना और बाप भाग्य का कलम दे देता है। यही परमात्म प्यार है। प्यार की निशानी क्या होती है? जो जीवन में चाहिये वह अगर कोई किसको देता है तो वही प्यार की निशानी है। तो बाप के प्यार की निशानी है जो जीवन में चाहिये वो सर्व कामनायें पूर्ण कर देते हैं। सुख-शान्ति तो चाहिये ना! अगर कोई वस्तु एक-दो को देते हैं तो उससे सुख मिलता है ना? तो बाप सुख क्या देता लेकिन सुख का भण्डार आप सबको बना देते हैं। सुख का भण्डार है ना! पूरा स्टॉक है या एक कमरा, दो कमरा है! भण्डार है। जैसे बाप सुख का सागर है, नदी और तलाव नहीं है, सागर है, तो बच्चों को भी सुख के भण्डार का मालिक बना देता है। कोई सुख की कमी है क्या? कोई अप्राप्ति है? फिर यह नहीं कहना कि थोड़ी-सी शक्ति दे दो! ‘दे दिया’। ‘दे दो’ कहने की आवश्यकता ही नहीं है। बाप ने दे दिया है, सिर्फ उसको कार्य में लगाने की विधि चाहिये। और विधि भी बाप द्वारा अनेक प्रकार की मिलती है। सिर्फ उसको समय प्रति समय कार्य में लगाते नहीं हो इसीलिये होते हुए भी उसका लाभ नहीं ले सकते। कितना बड़ा भाग्य है! और कितना सहज मिला है! कोई मेहनत की है क्या? एक टांग पर खड़ा तो नहीं होना पड़ा ना? या सेकेण्ड के दर्शन के लिए क्यू में खड़े हो ऐसे तो नहीं है ना। आराम से बैठे हो ना। नीचे भी फोम पर बैठे हो। आराम से ही सहज श्रेष्ठ भाग्य बना रहे हो। यह नशा है ना? सभी नशे से कहेंगे कि भाग्य विधाता हमारा है। जब भाग्य विधाता आपका हो गया तो भाग्य किसको देगा?
भाग्य विधाता को अपना बनाया अर्थात् भाग्य के अधिकार को प्राप्त कर लिया। जिसको नशा है वो सदा यही अनुभव करते हैं कि भाग्य मेरा नहीं होगा तो किसका होगा? क्योंकि भाग्य विधाता ही मेरा है। इतना नशा है या कभी-कभी चढ़ता है, कभी उतरता है? संगम का समय ही कितना छोटा-सा है। और आप मैजारिटी तो सब नये हो। कितना थोड़ा समय मिला है! लेकिन ड्रामा में विशेष इस संगमयुग की ये विशेषता है कि कोई भी नया हो या पुराना हो, नये को भी गोल्डन चांस है नम्बर आगे लेने का। तो नयों में उमंग है या समझते हो हमारे से आगे तो बहुत हैं, हम तो आये ही अभी हैं…। नहीं, ये खुली छुट्टी है जितना आगे बढ़ना चाहें उतना बढ़ सकते हैं सिर्फ अभ्यास पर अटेन्शन हो। कोई-कोई पुराने अलबेले हो जाते हैं और आप नये अलबेले नहीं होना तो आगे बढ़ जायेंगे। नम्बर ले लेंगे। नम्बर लेना है ना? फर्स्ट नम्बर नहीं, फर्स्ट डिवीज़न। फर्स्ट नम्बर तो ब्रह्मा बाप निश्चित हो गये ना। लेकिन फर्स्ट डिवीज़न में जितने चाहे उतने आ सकते हैं। तो सभी किस डिवीज़न में आयेंगे? सभी फर्स्ट में आयेंगे तो सेकेण्ड में कौन आयेगा? मातायें किसमें आयेंगी? फर्स्ट में आयेंगी? बहुत अच्छा। ‘आना ही है’ यह दृढ़ निश्चय भाग्य को निश्चित कर देता है। पता नहीं… आयेंगे, नहीं आयेंगे…, पता नहीं आगे चलकर कोई माया आ जाये…, माया बड़ी चतुर है ऐसे व्यर्थ संकल्प कभी भी नहीं करना। जब सर्वशक्तिमान् साथ है तो माया तो उसके आगे पेपर टाइगर है इसलिये घबराना नहीं। ‘पता नहीं’ का संकल्प कभी नहीं करना। मास्टर नॉलेजफुल बन हर कर्म करते चलो। साथ का अनुभव सदा ही सहज और सेफ रखता है। साथ भूल जाते हैं तो मुश्किल हो जाता है। लेकिन सभी का वायदा है कि साथ रहेंगे, साथ चलेंगे यही वायदा है ना? कि अकेले रहेंगे, अकेले जायेंगे? तो साथ का अनुभव बढ़ाओ। जानते हो कि साथ हैं, मानते भी हो लेकिन फर्क क्या पड़ता है? जानते भी हो, मानते भी हो लेकिन समय पर उसी प्रमाण चलते नहीं हो। माया का फोर्स ये जो कोर्स है उसको भुला देता है। लेकिन क्या माया बहुत बलवान है? वह बलवान है या आप बलवान हो? या कभी माया बलवान, कभी आप बलवान? आपकी कमजोरी माया है, और कुछ नहीं है। आपकी कमजोरी माया बनकर सामने आती है। जैसे शरीर की कमजोरी बीमारी बनकर सामने आती है ना, ऐसे आत्मा की कमजोरी माया बन करके सामना करती है। तो न कमजोर बनना है, न माया आनी है। लक्ष्य ही है – मायाजीत जगतजीत। कितने बार विजयी बने हो? अनगिनत बार, फिर भी घबरा जाते हो! कोई नई बात होती है तो कहा जाता है नई बात थी ना, मुझे पता नहीं था इसीलिये घबरा गये। लेकिन एक तरफ कहते हो अनेक बार विजयी बने हैं। फिर क्यों घबराते हो? बाप का प्यार ही ये है कि हर बच्चा श्रेष्ठ आत्मा बन राज्य अधिकारी बने। प्रजा अधिकारी तो नहीं बनना है ना? तो राज्य अधिकारी अर्थात् हर कर्मेन्द्रिय जीत। अगर अपनी कर्मेन्द्रियों के ऊपर, मन-बुद्धि-संस्कार के ऊपर विजय नहीं तो प्रजा पर क्या राज्य करेंगे! अगर ऐसे राजे बने जो अपने ऊपर विजय नहीं पा सकते तो सतयुग भी कलियुग बन जायेगा। इसीलिये ये चेक करो कि मन-बुद्धि-संस्कार कन्ट्रोल में हैं? मन आपको चलाता है या आप मन को चलाने वाले हो? जब ये कम्पलेन करते हो कि मेरा मन आज लगता नहीं, मेरा मन आज भटक रहा है तो ये मनजीत हुए? आज मन उदास है, आज मन और आकर्षण की तरफ जा रहा है ये विजयी के संकल्प हैं? तो जो स्वयं पर विजय नहीं पा सकते हैं वो विश्व पर कैसे विजय प्राप्त करेंगे? इसलिये चेक करो कर्मेन्द्रिय जीत, मन जीत कहाँ तक बने हैं? अगर फर्स्ट डिवीज़न में आना है तो इस लक्षण से लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हो।
बापदादा ने देखा कि बच्चे उमंग-उत्साह में भी रहते हैं, ज्ञान की जीवन अच्छी भी लगती है, ज्ञान सुनना-सुनाना इसमें भी अच्छे आगे बढ़ रहे हैं लेकिन चलते-चलते अगर कमजोरी आती है तो उसका कारण क्या है? विशेष कारण है कि जो कहते हो, जो सुनते हो, उस एक-एक गुण का, शक्ति का, ज्ञान के प्वॉइन्ट्स का अनुभव कम है। मानो सारे दिन में स्वयं भी वा दूसरे को भी कितने बार कहते हो मैं आत्मा हूँ, आप आत्मा हो, शान्त स्वरूप हो, सुख स्वरूप हो, कितने बार स्वयं भी सोचते हो और दूसरों को भी कहते हो। लेकिन चलते-फिरते आत्मिक अनुभूति, ज्ञान स्वरूप, प्रेम स्वरूप, शान्त स्वरूप की अनुभूति, वो कम होती है। सुनना-कहना ज्यादा है और अनुभूति कम है। लेकिन सबसे बड़ी अथॉरिटी अनुभव की होती है तो उस अनुभव में खो जाओ। जब कहते हो शान्त स्वरूप तो स्वरूप में स्वयं को, दूसरे को शान्ति की अनुभूति हो। एक-एक गुण का वर्णन करते हो, शक्तियों का वर्णन करते हो लेकिन शक्ति वा गुण समय पर अनुभव में आये। कई तो बोलते भी रहते हैं कि सहनशक्ति धारण करनी चाहिये, सहनशीलता अच्छी है, लेकिन अनुभूति नहीं होती। अनुभूति की कमी होने के कारण जितना चाहते हो उतना पा नहीं सकते। अगर सभी से पूछें कि जितना पुरूषार्थ होना चाहिये उतना है तो थोड़े हाँ कहेंगे। तो जितना मिल रहा है उतना जीवन में वा कर्म में अनुभव हो। सिर्फ सोचने में अनुभव नहीं हो लेकिन चलन में, कर्म में – शक्तियाँ, गुण स्वयं को भी अनुभव हो, दूसरों को भी अनुभव हो। कहते ही हो कि ज्ञान स्वरूप हैं। तो वह स्वरूप दिखाई देना चाहिये ना? और स्वरूप सदा होता है। स्वरूप कभी-कभी नहीं होता है। अज्ञानकाल की जीवन में यदि किसी का क्रोधी स्वरूप होता है तो जब भी कोई बात होगी तो वो स्वरूप दिखाई देता है, छिपता नहीं है। चाहे छोटी बात हो या बड़ी बात हो लेकिन जिसका जो स्वरूप होता है वह दिखाई देता है। स्वयं को भी अनुभव होता है और दूसरे को भी अनुभव होता है। क्या कहते हैं – ये है ही क्रोधी, इसका संस्कार ही क्रोध का है। तो संस्कार दिखाई देता है ना। ऐसे ये ज्ञान स्वरूप, शान्त स्वरूप, सुख स्वरूप अनुभव में आये। तो अनुभवीमूर्त ये है श्रेष्ठ पुरुषार्थ की निशानी। तो अनुभव को बढ़ाओ। जो कहा वो अनुभव किया? अगर अनुभव नहीं होता है तो उसका कारण ये है कि जो समय प्रति समय विधि मिलती है उस विधि के ऊपर अटेन्शन कम है? जितना ज्ञान को, शक्तियों को, गुणों को रिवाइज़ करते रहेंगे तो रियलाइज़ सहज होगा। रिवाइज़ नहीं करते तो रियलाजेशन भी कम है। सुना, बहुत अच्छा। लेकिन चलते-फिरते रिवाइज़ होना चाहिये। जैसे दुनिया वाले कहते हैं कि कर्म ही योग है। कर्म और योग अलग नहीं मानते। कर्म ही योग मानते हैं। कर्म से योग लगाना, इसी को ही कर्मयोग समझते हैं। लेकिन कर्म और योग दोनों का बैलेन्स चाहिये। कर्म में बिजी रहना योग नहीं है। कर्म करते योग का अनुभव होना चाहिये। कर्म में बिजी हो जाते हैं तो कर्म ही श्रेष्ठ हो जाता है, योग किनारे हो जाता है। चलते-चलते यही अलबेलापन आता है। तो कर्म में योग का अनुभव होना इसको कहा जाता है कर्मयोगी। मूल बात है अनुभवी स्वरूप बनो। एक-एक गुण के अनुभव में खो जाओ। शक्ति स्वरूप बन जाओ। आपके स्वरूप से शक्तियाँ दिखाई दें। अभी भी देखो, अगर कोई में कोई विशेष शक्ति होती है तो उसके लिये कहते हो ये बहुत सहनशील स्वरूप है, इसमें समाने की शक्ति बहुत दिखाई देती है। तो कोई में दिखाई देती है, कोई में नहीं और कभी दिखाई देती है, कभी नहीं तो अटेन्शन कम हुआ ना। तो हर शक्ति, हर गुण, हर ज्ञान की प्वॉइन्ट्स आपके स्वरूप में अनुभव करें और वो तब होगा जब पहले स्वयं को अनुभव होगा। अगर स्वयं अनुभवी होगा तो दूसरे को उससे स्वत: ही अनुभव होगा। और जब अनुभव करते हो तो कितनी खुशी होती है! एक सेकेण्ड भी अगर किसी गुण वा शक्ति का अनुभव होता है तो कितनी खुशी बढ़ जाती है और जब सदा अनुभवी स्वरूप होंगे तो सदा चेहरे पर खुशी की झलक, खुशनसीब की झलक अनुभव होगी। तो अनुभव को बढ़ाओ। विधि तो स्पष्ट है ना? अच्छा, सभी खुशनसीब तो हो ही लेकिन विशेष खुशी मनाने आये हो। तो सबको खुशी मिली है?
सब आराम से रहे हुए हो? मन आराम में है तो तन को आराम मिल ही जाता है। ये तो होना ही है, जितना स्थान बढ़ायेंगे उतना कम होना ही है। ये भावी है, उसको क्या करेंगे। और अच्छा है, रिहर्सल हो जाती है, जहाँ बिठाओ, जैसे बिठाओ, जैसे सुलाओ, इसकी रिहर्सल हो जाती है। तो पट में सोना अच्छा है, पटराजा बन गये ना। शास्त्रों में तो पटरानी और पटराजा का बड़ा गायन है, आप तो बहुत सहज बन गये। कोई तकलीफ है? बापदादा और निमित्त आत्मायें सोचती तो यही हैं कि सब आराम से रहें लेकिन अगर ज्यादा संख्या में भी आराम लगता है तो खुशी की बात है। जहाँ भी रहे हुए हो, वहाँ खुश हो? कोई तकलीफ नहीं है, और बुलायें? सिर्फ एक सूचना चली जाये कि जो आना चाहे वो आ जाये! तो क्या करना पड़ेगा? अखण्ड तपस्या करनी पड़ेगी। खुशी की खुराक खाओ और अखण्ड योग करो फिर तो सभी आ सकते हैं। करेंगे? थक नहीं जायेंगे! भूख नहीं लगेगी! सात दिन नहीं खायेंगे? सात दिन खाना नहीं मिलेगा! बापदादा ऐसा हठ कराना नहीं चाहते। सहजयोगी हो ना।
ये परमात्म मिलन कम भाग्य नहीं है! ये परमात्म मिलन का श्रेष्ठ भाग्य कोटों में कोई आप आत्माओं को ही मिलता है। अच्छा! मिल लिया ना! भक्ति में तो जड़ चित्र मिलता है और यहाँ चैतन्य में बाप बच्चों से मिलते भी हैं, रुहरिहान भी करते हैं। तो ये भाग्य कोई कम है! फिर भी आप सब लक्की हो, समय की गति बदलती जाती है। अभी फिर भी आराम से बैठकर सुन रहे हो। आगे चलकर वृद्धि होगी तो बदलेगा ना, फिर भी आप लक्की हो क्योंकि टूलेट के टाइम पर नहीं आये हो। लेट के टाइम पर आये हो। तो सब खुश हो? अच्छा।
चारों ओर के सर्वश्रेष्ठ भाग्य विधाता के भाग्यवान आत्माओं को, सदा मनजीत-जगतजीत के निश्चय और नशे में रहने वाले, सदा हर गुण, शक्ति और ज्ञान के अनुभवी आत्मायें, सदा बाप को साथ रखने वाले कम्बाइण्ड स्वरूप आत्मायें, सदा श्रेष्ठ भाग्य की लकीर को सहज श्रेष्ठ बनाने वाले, ऐसे अति समीप और श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।
वरदान:- | वाणी और मन्सा दोनों से एक साथ सेवा करने वाले सहज सफलतामूर्त भव वाचा के साथ-साथ संकल्प शक्ति द्वारा सेवा करना – यही पावरफुल अन्तिम सेवा है। जब मन्सा सेवा और वाणी की सेवा दोनों का कम्बाइन्ड रूप होगा तब सहज सफलता होगी, इससे दुगुनी रिजल्ट निकलेगी। वाणी की सेवा करने वाले तो थोड़े होते हैं बाकी रेख देख करने वाले, दूसरे कार्यों में जो रहते हैं उन्हें मन्सा सेवा करनी चाहिए, इससे वायुमण्डल योगयुक्त बनता है। हर एक समझे मुझे सेवा करनी है तो वातावरण भी पावरफुल होगा और सेवा भी डबल हो जायेगी। |
स्लोगन:- | सदा एकरस स्थिति के आसन पर विराजमान रहो तो अचल-अडोल रहेंगे। |