23-07-23 | प्रात:मुरलीओम् शान्ति”अव्यक्त-बापदादा” | रिवाइज: 16-03-95 मधुबन |
सर्व प्राप्ति सम्पन्न आत्मा की निशानी – सन्तुष्टता और प्रसन्नता
आज सर्व प्राप्तियाँ कराने वाले बापदादा अपने चारों ओर के प्राप्ति सम्पन्न बच्चों को देख रहे हैं। सर्व प्राप्तियों के दाता सम्पन्न और सम्पूर्ण बाप के बच्चे हैं तो हर एक बच्चे को बाप ने सर्व प्राप्तियों का वर्सा दिया है। ऐसे नहीं – किसको 10 दिया हो, किसको 20 दिया हो। सभी बच्चों को सर्व प्राप्तियों का अधिकार दिया है। सभी बच्चे फुल वर्से के अधिकारी हैं। तो बापदादा देख रहे हैं कि हर एक अधिकारी बच्चों ने अपने में प्राप्तियों का अधिकार कितना प्राप्त किया है? बाप ने सर्व दिया है। बाप को सर्व शक्तिमान् वा सम्पन्न सागर कहते हैं। लेकिन बच्चों ने उन प्राप्तियों को कहाँ तक अपना बनाया है? बाप का दिया हुआ वर्सा जब अपना बना लेते हैं तो जितना अपना बनाते हैं उतना नशा और खुशी रहती है – मेरा खज़ाना है। दिया बाप ने लेकिन अपने में धारण कर अपना बना लिया। तो क्या देखा? कि अपना बनाने में नम्बरवार हो गये हैं। बाप ने नम्बर नहीं बनाये हैं लेकिन अपने-अपने धारणा की यथाशक्ति ने नम्बरवार बना दिया है। सम्पूर्ण अधिकार वा सर्व प्राप्तियों से सम्पन्न आत्मा जो सदा अमृतवेले से रात तक प्राप्तियों के नशे वा अनुभव में रहती है, उनकी निशानी क्या होगी? प्राप्तियों की निशानी है सन्तुष्टता। वो सदा सन्तुष्टमणि बन दूसरों को भी सन्तुष्टता की झलक का वायब्रेशन फैलाते रहते हैं। उनका चेहरा सदा प्रसन्नचित्त दिखाई देगा। प्रसन्नचित्त अर्थात् सर्व प्रश्नचित्त से न्यारा। कोई प्रश्न नहीं होगा, प्रसन्न होगा। क्यों, क्या, कैसे – यह सब समाप्त। तो ऐसे प्रसन्नचित्त बने हो? कि अभी भी कभी-कभी कोई प्रश्न उठता है कि ये क्या है, ये क्यों है, ये कैसे होगा, कब होगा? ये प्रश्न चाहे मन में, चाहे दूसरों से उठता है? प्रश्नचित्त हो या प्रसन्नचित्त हो? या कभी प्रश्नचित्त, कभी प्रसन्नचित्त? क्या है? वैसे गायन है – अप्राप्त नहीं कोई वस्तु ब्राह्मणों के खजाने में। ये किसका, किन ब्राह्मणों का गायन है? आपका है या दूसरे आने वाले हैं? आप ही हो! तो जब कोई अप्राप्ति होती है ना, अप्राप्ति असन्तुष्टता का कारण है। अपना अनुभव देखो – कभी भी मन असन्तुष्ट होता है तो कारण क्या होता है? कोई न कोई अप्राप्ति का अनुभव करते हो तब असन्तुष्टता होती है। गायन तो है अप्राप्त नहीं कोई वस्तु। ये अब का गायन है या विनाश के समय का? विनाश के समय सम्पन्न हो जायेंगे कि अभी होना है? जो समझते हैं कि हम सदा प्रसन्नचित्त रहते हैं, कभी भी किसी भी बात में, चाहे अपने सम्बन्ध में, चाहे दूसरों के सम्बन्ध में भी प्रश्न नहीं उठता, सदा सन्तुष्ट रहते हैं – ऐसी सन्तुष्ट आत्मायें कितनी होंगी? बहुत हैं! अच्छा, जो समझते हैं सदा प्रसन्न रहते हैं, चाहे माया कितना भी हिलाये, लेकिन हम नहीं हिलते, माया को हिला देते हैं, माया नमस्कार करती है, हम अंगद हैं, माया हार जाती लेकिन हम विजयी हैं, जो ऐसे हैं वो हाथ उठाओ, सदा शब्द याद रखना, कभी-कभी वाले नहीं। बहुत थोड़े हैं, कोटो में कोई हैं! क्वेश्चनमार्क उठता तो है ना। क्वेश्चनमार्क डिक्शनरी से निकल जाये। हलचल भी न हो। कम्प्युटर चलाते हो तो उसमें आता है ना? आपके बुद्धि रूपी कम्प्युटर में सदा फुलस्टॉप की मात्रा आये। क्वेश्चन मार्क, आश्चर्य की मात्रा खत्म। इसको कहा जाता है सदा प्रसन्नचित्त। ऐसा प्रसन्नचित्त औरों का भी क्वेश्चन मार्क खत्म कर देता है। नहीं तो स्वयं में अगर क्वेश्चन मार्क है तो कोई भी बात सुनेंगे, देखेंगे, कहेंगे – हाँ, ये तो होना नहीं चाहिये, लेकिन होता है, मैं भी समझती हूँ, होना नहीं चाहिये, मिक्स हो जायेंगे। उसके प्रश्न को और अण्डरलाइन कर देंगे। टेका तो दे दिया ना – कि हाँ, ये ठीक नहीं है लेकिन होता है…। तो प्रसन्नचित्त उसको नहीं किया लेकिन और ही प्रश्न को बढ़ा लिया। एडीशन हो गई। वैसे एक का क्वेश्चन था, अभी दो का हो गया, दो से चार का हो जायेगा। तो प्रसन्नचित्त वायब्रेशन के बजाय प्रश्नचित्त का वायब्रेशन जल्दी फैलता है। हाँ! ऐसा है… साथ दे दिया। आश्चर्य की मात्रा आ गई ना – हाँ! तो फुलस्टॉप तो नहीं हुआ ना। चाहे अपने प्रति भी – ये मेरे से होना नहीं चाहिये, ये मेरे को मिलना चाहिये, ये दूसरे को नहीं होना चाहिये, तो ये चाहिये-चाहिये प्रश्नचित्त बना देती है, प्रसन्नचित्त नहीं। तो सभी का लक्ष्य क्या है? सन्तुष्ट, प्रसन्नचित्त।
जिसका प्रसन्नचित्त होता है उसके मन-बुद्धि के व्यर्थ की गति फास्ट नहीं होगी। सदा निर्मल, निर्मान। निर्मान होने के कारण सभी को अपने प्रसन्नचित्त की छाया में शीतलता देंगे। कैसा भी आग समान जला हुआ, बहुत गरम दिमाग का हो लेकिन प्रसन्नचित्त के वायब्रेशन की छाया में शीतल हो जायेगा। कमजोरी क्या आती है? वैसे ठीक चलते हो, अपने रीति से अच्छे चलते हो लेकिन जब सम्बन्ध-सम्पर्क में आते हो तो दूसरे की कमज़ोरी देखते-सुनते, वर्णन करते प्रभाव में आ जाते हो। फिर कहते हो कि इसने किया ना, इसीलिये मेरे से भी हो गया। इसने कहा, तभी मैंने कहा। उसने 50 बारी कहा, मैंने एक बारी कहा। फिर बाप के आगे भी बहुत मीठी-मीठी बातें रखते हैं, कहते हैं – बाबा आप समझो ना इतना सहन कहाँ तक करेंगे! फिर भी पुरुषार्थी हैं ना, तो थोड़ा तो आयेगा ना! बाप को भी समझाने लगते हैं। यहाँ जो निमित्त हैं उन्हों को बहुत कथायें सुनाते हैं। ऐसा था ना, ऐसा था ना, ऐसा था ना… ऐसे-ऐसे की माला जपते हैं। बापदादा सदा ही इशारा देते हैं कि ऐसी बातें दो अक्षर में वर्णन करो। लम्बा वर्णन नहीं करो क्योंकि ये व्यर्थ बातें बहुत चटपटी होती हैं। मज़ेदार लगती हैं, जैसे खाने में भी खट्टी-मीठी चीज हो तो अच्छी लगेगी ना, और फीकी, सादी हो तो कहेंगे ये तो खाते ही रहते हैं। तो व्यर्थ बातें, व्यर्थ चिन्तन सुनना, बोलना और करना इसमें चलते-चलते इन्ट्रेस्ट बढ़ जाता है। फिर सोचते हैं – मैं तो नहीं चाहती थी लेकिन उसने सुनाया ना, तो मैंने कहा कि अच्छा उसका सुन लें, दिल खाली कर दें। उसकी तो दिल खाली हुई और आपने दिल भर ली। वो थोड़ा-थोड़ा दिल में भरते-भरते फिर संस्कार बन जाता है और जब संस्कार बन जाता है तो महसूस ही नहीं होता कि ये राँग है। ये व्यर्थ संस्कार बुद्धि के निर्णय को खत्म कर देता है इसलिये सबसे सहज सदा सन्तुष्ट रहने की विधि है – सदा अपने सामने कोई न कोई विशेष प्राप्ति को रखो क्योंकि प्राप्ति भूलती नहीं है। ज्ञान की पॉइन्ट्स भूल सकती हैं लेकिन कोई भी प्राप्ति भूलती नहीं है। बाप से क्या-क्या मिला, कितना मिला है, वैरायटी पसन्द आती है ना! एक जैसा पसन्द नहीं होता। तो आप अपने प्राप्तियों को देखो – ज्ञान के खजाने की प्राप्ति कितनी है, योग से शक्तियों की प्राप्ति कितनी है, दिव्यगुणों की प्राप्तियाँ कितनी हैं, प्रैक्टिकल नशे में, खुशी में रहने की प्राप्तियाँ कितनी हैं? बहुत लिस्ट है ना! पहले भी सुनाया था कि कभी कोई, कभी कोई गुण की प्राप्ति को सामने रखते हुए सन्तुष्ट रहो क्योंकि एक गुण भी अपनाया तो जैसे विकारों का आपस में बहुत गहरा सम्बन्ध है, अगर बाहर के रूप में इमर्ज रीति से क्रोध है लेकिन आन्तरिक चेक करो तो क्रोध के साथ लोभ, अहंकार होता ही है। ये सब आपस में साथी हैं। कोई इमर्ज रूप में होते हैं, कोई मर्ज रूप में होते हैं। तो गुण भी जो हैं उन्हों का भी आपस में सम्बन्ध है। इमर्ज एक गुण को रखो लेकिन दूसरे गुण भी उनके साथ ही मर्ज रूप में होते हैं। तो रोज़ कोई न कोई प्राप्ति स्वरूप का अनुभव अवश्य करो। अगर प्राप्ति इमर्ज रूप में होगी तो प्राप्ति के आगे अप्राप्ति खत्म हो जायेगी और सदा सन्तुष्ट रहेंगे। वैसे भी देखो, दुनिया में भी मुख्य प्राप्ति सभी क्या चाहते हैं?
हर एक चाहता है कि अपना नाम अच्छा हो, दूसरा मान और तीसरा शान। नाम-मान-शान – ये प्राप्त करना चाहते हैं। आप भी क्या चाहते हो? आप भी तो यही चाहते हो ना! हद का नहीं, बेहद का। तो दुनिया वाले तो हद के नाम के पिछाड़ी दौड़ते हैं और आपका नाम विश्व में जितना ऊंचा है उतना और किसका है? तो आप अपने नाम को देखो। सबसे नाम की विशेषता ये है कि आपका नाम कौन जपता है? स्वयं भगवान आपका नाम जपता है! तो इससे बड़ा नाम क्या होगा! आपके नाम से अभी लास्ट जन्म में भी अनेक आत्मायें अपना शरीर निर्वाह चला रही हैं। आप ब्राह्मण हो ना, तो ब्राह्मणों के नाम से आज भी नामधारी ब्राह्मण कितना कमा रहे हैं! अभी तक नामधारी ब्राह्मण भी कितना ऊंचे गाये जाते हैं! तो आपके नाम की कितनी महिमा है! इतना श्रेष्ठ नाम आपका हो गया, इसीलिये हद के नाम के पीछे नहीं जाओ। मेरा नाम तो कभी किसी में लेते ही नहीं हैं, मेरा नाम सदा पीछे ही रहता है, सेवा मैं करती हूँ नाम दूसरे का हो जाता है…, तो हद के नाम के पीछे नहीं जाओ। बाप के दिल में आपका नाम सदा ही श्रेष्ठ है। जब बाप के दिल में नाम हो गया तो कोई सेवा में या कोई प्रोग्राम में या कोई भी बातों में आपका नाम नहीं भी आया तो क्या हर्जा, बाप के पास तो है ना! जैसे भक्ति मार्ग में हनुमान का चित्र दिखाते हैं ना तो उसके दिल में क्या था? राम था। और बाप के दिल में क्या है? (बच्चे) तो बच्चों में आप हो या नहीं हो? तो सभी का नाम है! देखा है? पक्का? कभी मिस हो गया हो तो! आप सभी का नाम है! तो और नाम के पीछे क्यों पड़ते हो? क्योंकि मैजारिटी यही नाम-मान-शान गिराता भी है और यही नाम-मान-शान नशा भी चढ़ाता है। तो प्राप्ति के रूप में देखो। अगर मानों कोई कारण से आपका नाम गुप्त है और आप समझते हो कि मेरा नाम होना चाहिये, यथार्थ है फिर भी अगर किसी आत्मा से हिसाब-किताब के कारण या उसके संस्कार के कारण आपका नाम नहीं होता है, आप राइट हो, वो राँग है फिर भी उसका नाम होता है, आपका नहीं, तो विजय माला में आपका नाम निश्चित है। इसीलिये इसकी भी परवाह नहीं करो। इस रूप में माया ज्यादा आती है इसलिये अभी गलती से नाम मिस हो भी गया, कोई हर्जा नहीं लेकिन विजय माला में आपका नाम मिस नहीं हो सकता। पहले आपका नाम होगा। तो अपने नाम की महिमा याद रखो कि मेरा नाम बाप के दिल पर है, विजय माला में है, अन्त तक मेरा नाम सेवा कर रहा है।
और आपका मान कितना है? भगवान ने भी आपको अपने से आगे रखा है! पहले बच्चे। तो स्वयं बाप ने मान दे दिया। कितना आपका मान है, उसका प्रुफ देखो कि आपके जड़ चित्रों का भी लास्ट जन्म तक कितना मान है! चाहे जाने, नहीं जाने लेकिन कोई भी देवी-देवता का चित्र होगा तो कितने मान से उसको देखते हैं! सबसे श्रेष्ठ मान अब तक आपके चित्रों का भी है। ये प्रुफ है। जब आपके चित्र ही इतने माननीय, पूजनीय हैं तो जिसका मान रखा जाता है उसको पूजनीय माना जाता है। हमेशा कहते हैं ना – यह हमारे पूजनीय हैं, पूज्य हैं। तो प्रैक्टिकल प्रुफ है कि आपके चित्रों का भी मान है तो चैतन्य में हैं तब भी चित्रों का मान है। अगर चैतन्य में मान नहीं होता तो चित्रों को कैसे मिलता? बाप तो सदा कहते हैं – पहले बच्चे। बच्चे डबल पूजे जाते हैं, बाप सिंगल। तो आपका मान बाप से ज्यादा हुआ ना! इतना श्रेष्ठ मान मिल गया! तो जब भी कोई हद के मान की बात आये तो सोचना कि आत्माओं का मान क्या करेगा, जब परम आत्मा का मान मिल गया। ऐसे नहीं सोचो कि हम इतना कुछ करते हैं फिर भी मान नहीं देते, पूछते ही नहीं हैं! ये सोचना व्यर्थ है क्योंकि जितना आप हद के मान के पीछे दौड़ लगायेंगे ना तो ये हद की कोई भी चीज़ परछाई के समान है। परछाई के पीछे पड़ने से कभी परछाई मिलती है कि और आगे बढ़ती जाती है? तो ये हद का मान, हद का नाम – ये परछाई है। ये माया के धूप में दिखाई देती है लेकिन है कुछ भी नहीं। तो नाम भी आपको मिल गया, मान भी आपको मिला हुआ है और शान कितना है! अपने एक-एक शान को याद करो और किसने शान में बिठाया? बाप ने बिठाया। बाप के दिल-तख्तनशीन हैं। सबसे बड़े ते बड़ी शान राज्य पद है ना! तो आपको तख्त-ताज मिल गया है ना! जो परम आत्मा के तख्तनशीन हैं इससे बड़ी शान क्या है!
कभी-कभी निर्णय करने में एक छोटी-सी गलती कर देते हो। जो रीयल शान है, रूहानी शान है वो कभी भी अभिमान की फीलिंग नहीं देगा। तो कभी-कभी क्या करते हो? होता अभिमान है लेकिन समझते हो कि ये शान तो अपना रखना चाहिये, इतना शान तो रखना चाहिये ना, शान में रहना अच्छा होता है, लेकिन शान है या अभिमान है, उसको अच्छी तरह से चेक करो। कभी-कभी अभिमान को शान समझ लेते हैं और फिर निर्मान नहीं होते हैं। आप अपने शान को रीयल समझते हो लेकिन दूसरे समझते हैं कि ये अभिमान है तो थोड़ा भी कुछ कह देंगे तो आपको अपमान लगेगा। अभिमान वाले को अपमान बहुत जल्दी फील होगा। थोड़ा भी किसने हंसी में भी कुछ कह दिया तो अपमान लगेगा। ये अभिमान की निशानी है। सोचेंगे – नहीं, मैं तो ऐसा हूँ नहीं, ऐसे थोड़ेही कहना चाहिये। तो निर्णय ठीक करो। उस समय निर्णय में कमी कर लेते हो। यथार्थ के बजाय मिक्स होता है और आप उसको यथार्थ समझ लेते हो। तो कहने में आता है कि ये हैं बहुत अच्छे लेकिन बोलचाल, उठना, बैठना जो है ना वो अभिमान का लगता है। ये भी किसी ने कहा तो अपमान की फीलिंग आ जायेगी। तो स्वमान और अभिमान के अन्तर को भी चेक करो। स्वमान कितना बड़ा है, शान कितनी बड़ी है, उस बेहद के नाम, मान और शान को सदा इमर्ज रखो। मर्ज नहीं, इमर्ज करो। जैसे याद में कभी-कभी अलबेलापन आ जाता है तो कहते हैं हम हैं ही बाप के, याद क्या करें…। लेकिन इमर्ज संकल्प से प्राप्ति का अनुभव होता है। ऐसे ही हर धारणा में अलर्ट रहो, अलबेले नहीं बनो क्योंकि समय समीप आ रहा है और समय समीप क्या सूचना दे रहा है? समान बनो, सम्पन्न बनो। तो समय की चैलेन्ज को देखो और सर्व प्राप्तियों से सम्पन्न बनो। अच्छा।
चारों ओर के सदा सर्व प्राप्ति स्वरूप आत्मायें, सदा सन्तुष्ट, सदा प्रसन्नचित्त रहने वाली श्रेष्ठ आत्मायें, सदा स्वयं को श्रेष्ठ नाम, मान, शान के अधिकारी अनुभव करने वाली समीप आत्मायें, सदा सर्व को सन्तुष्टता के वायब्रेशन की लाइट-माइट देने वाले प्रसन्नचित्त आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।
वरदान:- | हर सेकण्ड स्वयं को भरपूर अनुभव कर सदा सेफ रहने वाले स्मृति सो समर्थ स्वरूप भव बापदादा द्वारा संगमयुग पर जो भी खजाने मिले हैं उनसे स्वयं को सदा भरपूर रखो, जितना भरपूर उतना हलचल नहीं, भरपूर चीज़ में दूसरी कोई चीज़ आ नहीं सकती, ऐसे नहीं कह सकते कि सहनशक्ति वा शान्ति की शक्ति नहीं है, थोड़ा क्रोध या आवेश आ जाता है, कोई दुश्मन जबरदस्ती तब आता है जब अलबेलापन है या डबल लाक नहीं है। याद और सेवा का डबल लाक लगा दो, स्मृति स्वरूप रहो तो समर्थ बन सदा ही सेफ रहेंगे। |
स्लोगन:- | विश्व का नव निर्माण करने के लिए अपनी स्थिति निर्मानचित बनाओ। |