murli 14-05-23

14-05-23प्रात:मुरलीओम् शान्ति”अव्यक्त-बापदादा”रिवाइज: 05-12-94 मधुबन

वर्तमान समय की आवश्यकता – बेहद के वैराग्य वृत्ति का वायुमण्डल बनाना

आज स्नेह के सागर बाप अपने स्नेह में समाये हुए स्नेही बच्चों को देख रहे हैं। यह ईश्वरीय स्नेह सिवाए आप बच्चों के किसी को भी प्राप्त नहीं होता। आप सभी को ये विशेष प्राप्ति है। प्राप्ति सभी बच्चों को है लेकिन पहली स्टेज है प्राप्ति होना और आगे की स्टेज है प्राप्ति के अनुभव में खो जाना। पहली बात, प्राप्ति के नशे से सभी कहते हो कि हमें बाप का प्यार मिला। बाप मिला अर्थात् प्यार मिला। सभी के मुख से यही निकलता है ‘मेरा बाबा’। तो पहली स्टेज में प्राप्ति सभी को है। लेकिन अनुभूति में सदा खोये रहें, इसमें नम्बरवार हैं। जो परमात्म प्यार में खोये हुए रहते हैं उनको इस प्यार से कोई हटा नहीं सकता। परमात्म प्यार में खोई हुई आत्मा की झलक और फ़लक, अनुभूति की किरणें इतनी शक्ति-शाली होती हैं जो कोई भी समीप आना तो दूर लेकिन आंख उठाकर भी नहीं देख सकता। ऐसी अनुभूति सदा रहे तो कभी भी किसी भी प्रकार की मेहनत नहीं होगी। अभी योग लगाते-लगाते युद्ध करनी पड़ती है। बैठते योग में हैं लेकिन अनुभूति में खोये हुए नहीं होने के कारण कभी योग, कभी युद्ध दोनों चलते रहते हैं। मैं बाप का हूँ ये बार-बार स्मृति में लाना पड़ता है। तो बार-बार स्मृति में लाना, विस्मृति है तब तो स्मृति में लाते हो ना? तो हाँ-ना, स्मृति-विस्मृति ये युद्ध लवलीन अनुभूति करने नहीं देती है। वर्तमान समय बच्चों को जो युद्ध वा मेहनत करनी पड़ती है वो व्यर्थ और समर्थ की युद्ध ज्यादा चलती है। कोई-कोई बच्चों में व्यर्थ देखने के संस्कार नेचुरल नेचर हो गई है। कोई में सुनने की, कोई में वर्णन करने की, कोई में सोचने की ऐसी नेचुरल नेचर हो गई है जो वो समझते ही नहीं हैं कि ये हम करते भी हैं। अगर कोई इशारा भी देते हैं तो माया की समझदारी होने के कारण अपने को बहुत समझदार समझते हैं। या तो माया के समझदार बन जाते वा अलबेलापन आ जाता – ये तो चलता ही है, ये तो होता ही है…। माया की समझदारी से रांग में भी अपने को राइट समझते हैं। होती माया की समझदारी है लेकिन समझेंगे मेरे जैसा ज्ञानी, मेरे जैसा योगी, मेरे जैसा सेवाधारी कोई है ही नहीं क्योंकि उस समय माया की छाया मन और बुद्धि को ऐसे वशीभूत कर देती है जो यथार्थ निर्णय कर नहीं सकते। मायावी योगी वा मायावी ज्ञानी समझदार, ईश्वरीय समझ से किनारा करा देती है। माया की समझदारी भी कम नहीं है। माया से योग लगाने वाले भी अचल-अटल योगी हैं इसलिये फ़र्क नहीं समझते। उस समय के बोल का नशा भी सभी जानते हो ना कितना बढ़िया होता है! इसलिये बापदादा सदा बच्चों को कहते हैं कि प्राप्तियों की अनुभूतियों के सागर में समाये रहो। सागर में समाना अर्थात् सागर समान बेहद के प्राप्ति स्वरूप बन कर्म में आना।

बापदादा ने चारों ओर के बच्चों का चार्ट चेक किया। क्या देखा? समय के समीपता के प्रमाण वर्तमान के वायुमण्डल में बेहद का वैराग्य प्रत्यक्ष स्वरूप में होना आवश्यक है। बेहद का वैराग्य वर्णन भी करते हो। प्वॉइन्ट्स बहुत निकालते हो, भाषण भी बहुत अच्छे करते हो। सभी के पास पॉइन्ट्स हैं ना? पॉइन्ट्स वर्णन करना वा सोचना इसमें तो मैजारिटी पास हैं। इन छोटी-छोटी कुमारियों को भी भाषण तैयार करके देंगे तो कर लेंगी। यथार्थ वैराग्य वृत्ति का सहज अर्थ है चाहे आत्माओं के सम्पर्क में आयें, चाहे साधनों के सम्बन्ध में आयें, चाहे सेवा के चांस में चांसलर बनने का भाग्य मिले लेकिन सर्व के सम्बन्ध-सम्पर्क में जितना न्यारा, उतना प्यारा इसका बैलेन्स रहे। होता क्या है? कभी न्यारेपन की परसेन्टेज़ बढ़ जाती और कभी प्यारेपन की परसेन्टेज़ बढ़ जाती। प्यारा-पन का अर्थ है निमित्त भाव, निर्मान भाव। लेकिन इसके बदले मेरेपन का भान आ जाता। ये मेरा ही काम है, मेरा ही स्थान है, मुझे ही सर्व साधन भाग्य अनुसार मिले हुए हैं, इतनी मेहनत से मैंने ये साधन, स्थान वा सेवा वा सेवा साथी (स्टूडेन्ट्स भी साथी हैं) बनायें हैं। ये मेरा है, क्या मेरी मेहनत की कोई वैल्यू नहीं है? ये निमित्त भाव और मेरेपन के भाव में अन्तर है या एक ही है? ये मेरापन रॉयल रूप से बढ़ गया है। ये मेरेपन की रॉयल भाषा, रॉयल संकल्प बाप से रूहरिहान में भी बापदादा बहुत सुनते हैं। बहुत प्यार से बाप को या निमित्त आत्माओं को मनाने या मनवाने आते हैं – बाबा आप ही इसमें मेरे को मदद करना, आप क्या समझते हो कि ये मेरा काम नहीं है, मेरी ज़िम्मेदारी नहीं है, मेरा अधिकार मेरे को ही मिलना चाहिये। बाप को भी ज्ञान देने के लिये बहुत होशियारी करते हैं। बापदादा मुस्कराते रहते हैं। निमित्त हैं, जो मिला, जैसे मिला, जहाँ बिठायेंगे, जो खिलायेंगे, जो करायेंगे वही करेंगे। ये पहला-पहला सभी का वायदा है। वायदा है ना? ये वायदा है या सिर्फ खाने-पीने के लिये है? मेरे-पन के भाव का वैराग्य ही बेहद का वैराग्य है। नये-नये प्रकार के मेरेपन और इमर्ज हो रहे हैं। माया वर्तमान समय नये-नये प्रकार के मेरेपन की छाया डाल रही है इसलिये समय की समीपता प्रत्यक्ष रूप में नहीं आ रही है। ज्ञानी, चाहे अज्ञानी, दोनों जानते हैं और कहते भी हैं कि दुनिया की हालतें बहुत खराब है, ये दुनिया कहाँ तक चलेगी, कैसे चलेगी? लेकिन फिर भी दुनिया चल रही है। समय की समीपता का फाउण्डेशन है – बेहद की वैराग्य वृत्ति। बापदादा ने चेक किया बेहद की वैराग्य वृत्ति के बजाय नये-नये प्रकार के छोटे-छोटे लगाव का विस्तार बहुत बड़ा है। इस विस्तार ने सार को छिपा लिया है। समझा? अब क्या करना है?

यह लगाव बड़े टेस्टी लगते हैं। एक-दो बार टेस्ट किया तो वो टेस्ट खींचते रहते हैं। सेवा कर रहे हो बहुत अच्छा लेकिन अपनी चेकिंग करो कि निमित्त भाव है वा लगाव का भाव है? ‘बाबा-बाबा’ के बदले ‘मेरा-मेरा’ तो नहीं आ जाता? मानना है तेरा और बन जाता है मेरा। तो अब क्या करेंगे? मेरा-मेरा पसन्द है? बापदादा ने पहले भी सुनाया है – एक बहुत बड़ी गलती करते हैं वा चलते-चलते हो जाती है, करना नहीं चाहते हैं लेकिन हो जाती है, वह क्या? दूसरे के जज बन जाते हैं और अपने वकील बन जाते हैं। बनना है अपना जज और बनते हैं दूसरों का। इसको यह नहीं करना चाहिये, इनको बदलना चाहिये। और अपने लिये समझेंगे यह बात बिल्कुल सही है। मैं जो कहती हूँ, वही राइट है, ये ऐसे है, ये वैसे है। वकील लोग भी सिद्ध करते हैं ना सच को झूठ, झूठ को सच। और जितने प्रमाण देना वकीलों को आता है उतना और किसको नहीं आता। अपना जज बनना, ये गलती हो जाती है। दूसरे के लिये रिमार्क देना बहुत सहज है। लेकिन अपने को बदलना है। स्लोगन भी है “स्व परिवर्तन से विश्व परिवर्तन।” पहले ‘स्व’ है। सुना, क्या चार्ट देखा?

बापदादा भी माया की चाल को देख मुस्कराते रहते हैं – माया कितनी चतुर है! मास्टर सर्वशक्तिमान् आत्माओं को भी अपना बना लेती है। तो अभी क्या चाहिये? बेहद की वैराग्य वृत्ति का वायुमण्डल बनाओ। जैसे सेवा का वायुमण्डल बनाते हो ना, प्रोग्राम बनाते हो। सिर्फ दिमाग तक ये वृत्ति नहीं, दिल तक पहुँचे। सबके दिमाग में तो है – होना चाहिये, करना चाहिये लेकिन दिल में ये लहर उत्पन्न हो जाये इसकी आवश्यकता है। समझा? सभी ने अच्छी तरह से समझा? कि अभी समझ में आया फिर उठने के बाद सोचेंगे ये कैसे होगा, ये करना मुश्किल है, सुनना-बोलना तो सहज है, करना मुश्किल है। तो अभी ऐसे नहीं कहेंगे ना?

स्नेह से आप भी पहुँच गये हैं और बापदादा भी पहुँच गये हैं। स्नेह में देखो कितनी शक्ति है! स्नेह अव्यक्त को व्यक्त में ले आता है। आप सबको मधुबन में ले आया है। सभी स्नेह में ठीक पहुँच गये हैं ना? किसने लाया? ट्रेन ने लाया कि स्नेह ने लाया? जहाँ स्नेह है वहाँ मेहनत, मेहनत नहीं लगती, मुश्किल, मुश्किल नहीं लगता। ये तीन पैर के बजाय दो पैर पृथ्वी भी मिले तो क्या लगता है? सतयुग के पलंगों से भी श्रेष्ठ है। सब आराम से रहे हुए हैं कि मजबूरी से? क्या करें, रहना ही है…। भक्ति मार्ग में तो सिर्फ पांव रखने के लिये इतनी मेहनत करते हैं, आपको सोने के लिये तीन पैर नहीं तो दो पैर तो मिलता है। आपने तो मांगा था कि चरणों में जगह दे दो लेकिन बाप ने चरणों की बजाय पटरानी बना दिया। फिर भी मधुबन का आंगन है ना। चाहे कहाँ भी सोते हो लेकिन हैं तो मधुबन के आंगन में। इतना बाप के समीप आने का अधिकार मिलेगा ये तो स्वप्न में भी नहीं था। तो सब खुश हो ना? दो पैर की बजाय एक पैर मिले तो भी राज़ी रहेंगे? बैठे-बैठे सोयेंगे! कइयों को बैठने में नींद अच्छी आती है। सोयेंगे तो नींद नहीं आयेगी। योग में बैठना और सोना शुरू। पांच दिन अखण्ड तपस्या करनी पड़े तो सब तैयार हो? खाना भी नहीं मिले तो चलेगा? कि समझते हो ये होना नहीं है? जो चीज़ वहाँ नहीं खाते वो और ही मधुबन में मिलती है। लेकिन एवररेडी रहना चाहिये। मिले तो बहुत अच्छा, न मिले तो बहुत-बहुत अच्छा क्योंकि सबको अमृतवेले दिलखुश मिठाई तो मिलती ही है और सारा दिन खुशी की खुराक भी मिलती है। तो चल सकता है ना? ये भी ट्रॉयल करेंगे। अच्छा!

चारों ओर के सर्वश्रेष्ठ भाग्यवान आत्माओं को, सदा सर्व प्राप्तियों के अनुभूतियों में समाये हुए श्रेष्ठ आत्माओं को, सदा परखने की, निर्णय करने की शक्ति को तीव्र बनाने वाले समीप आत्माओं को, सदा सेवा में समर्थ बन समर्थ बनाने के निमित्त आत्माओं को, सदा न्यारा और प्यारा दोनों का बैलेन्स रखने वाली ब्लैसिंग के पात्र आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

टीचर्स के साथ:- जैसे टीचर्स का टाइटल है, तो जैसा टाइटल है वैसे विशेष बेहद के वैराग्य वृत्ति का वायुमण्डल बनाने में टाइट रहना। हल्के नहीं होना क्योंकि निमित्त टीचर्स का वायुमण्डल अनेकों तक पहुँचता है। तो टीचर्स अभी ये कमाल करके दिखायें। जैसे परिवर्तन में आज्ञाकारी तो बने। आज्ञाकारी बनने का, हाँ जी करने का एक पाठ तो पक्का कर लिया। लेकिन दूसरा पाठ बेहद के वैराग्य वृत्ति का, अभी ये पाठ पक्का करके दिखाओ क्योंकि निमित्त हो ना। तो निमित्त आत्मायें ही निर्मान बन निर्माण का कर्तव्य बहुत सहज कर सकती हैं। अभी ये वर्ष तो पूरा हो ही रहा है। लेकिन नये वर्ष में इस नवीनता की झलक बापदादा भी देखेंगे। सेवा की, सेन्टर खोले, बहुत बढ़ाया, आई.पीज भी आ गये, वी.आई.पीज भी आ गये, ये तो होता ही रहता है लेकिन सेवा में बेहद की वैराग्य वृत्ति अन्य आत्माओं को और समीप लायेगी। मुख की सेवा सम्पर्क में लाती है और वृत्ति से वायुमण्डल की सेवा समीप लायेगी। समझा? बापदादा तो चार्ट देखते ही हैं ना? फिर भी सेवा के निमित्त हो – ये श्रेष्ठ भाग्य कम नहीं है! ये भी विशेष वर्सा है। तो इस विशेष वर्से के भाग्य के अधिकारी बने हो। समझा? अच्छा।

डबल विदेशी:- (सभी स्थानों से पहुंचे हैं) होशियार हैं डबल फारेनर्स। जैसे सब देश के एम्बेसडर भेजते हैं ना। तो इन्टरनेशनल ब्राह्मण परिवार हो गया ना। डबल विदेशियों की विशेषता है कि सदा हाथ में हाथ है और साथ है। विदेश का फैशन है ना हाथ में हाथ देना। तो अभी किसके हाथ में हो? बाप के। सदा बाप के हाथ से हाथ मिलाके आगे चलने वाले। हाथ है श्रीमत, तो श्रीमत का हाथ सदा हाथ में है। पक्का है कि कभी थक जाते हैं तो छोड़ देते हैं? कभी हाथ छूटता है? माया छुड़ावे तो? नहीं छूटता है? तो सदा साथ रहने वाले और सदा श्रीमत के हाथ में हाथ देकर चलने वाले। जिसका साथी बाप है, जिसका हाथ बाप के हाथ में है वो सदा ही निश्चिन्त, बेफा बादशाह है क्योंकि हाथ और साथ दोनों मज़बूत हैं। ठीक है ना? नैरोबी वाले, पक्का हाथ और साथ है ना? चाहे सारी दुनिया के अक्षौहिणी लोग हाथ छुड़ाये तो छूटेगा? वो अक्षौहिणी शक्तिहीन हैं और आप एक मास्टर सर्वशक्तिवान हैं, इसीलिये डबल विदेशियों को नशा है कि बापदादा का एक्स्ट्रा हाथ और साथ है, लिफ्ट है। अच्छा।

वरदान:-दिव्य बुद्धि के वरदान द्वारा अपने रजिस्टर को बेदाग रखने वाले कर्मो की गति के ज्ञाता भव
ब्राह्मण जन्म लेते ही हर बच्चे को दिव्य बुद्धि का वरदान मिलता है। इस दिव्य बुद्धि पर किसी भी समस्या का, संग का वा मनमत का प्रभाव न पड़े तब रजिस्टर बेदाग रह सकता है। लेकिन यदि समय पर दिव्य बुद्धि काम नहीं करती तो रजिस्टर में दाग लग जाता है, इसलिए कहा जाता है कर्मो की लीला अति गुह्य है। दुनिया वाले तो हर कदम में कर्मों को कूटते हैं लेकिन आप कर्मो की गति के ज्ञाता बच्चे कभी कर्म कूट नहीं सकते। आप तो कहेंगे वाह मेरे श्रेष्ठ कर्म।
स्लोगन:-पवित्रता की गहन धारणा से ही अतीन्द्रिय सुख की अनुभूति होती है।