MURLI 01-02-2024 | BRAHMA KUMARIS | “मीठे बच्चे – अब तक जो कुछ पढ़ा है वह सब भूल जाओ, एकदम बचपन में चले जाओ तब इस रूहानी पढ़ाई में पास हो सकेंगे”

MURLI 01-02-2024 | BRAHMA KUMARIS

01-02-2024प्रात:मुरलीओम् शान्ति“बापदादा”‘मधुबन
MURLI 01-02-2024 | BRAHMA KUMARIS“मीठे बच्चे – अब तक जो कुछ पढ़ा है वह सब भूल जाओ, एकदम बचपन में चले जाओ तब इस रूहानी पढ़ाई में पास हो सकेंगे”
प्रश्नः-जिन बच्चों को दिव्य बुद्धि मिली है, उनकी निशानी क्या होगी?
उत्तर:-वे बच्चे इस पुरानी दुनिया को इन ऑखों से देखते हुए भी नहीं देखेंगे। उनकी बुद्धि में सदा रहता है कि यह पुरानी दुनिया ख़त्म हुई कि हुई। यह शरीर भी पुराना तमोप्रधान है तो आत्मा भी तमोप्रधान है, इनसे क्या प्रीत करें। ऐसे दिव्य बुद्धि वाले बच्चों से ही बाप की भी दिल लगती है। ऐसे बच्चे ही बाप की याद में निरन्तर रह सकते हैं। सेवा में भी आगे जा सकते हैं।

ओम् शान्ति। मीठे-मीठे रूहानी बच्चों को रूहानी बाप समझाते हैं। जैसे हद के संन्यासी हैं, वह घरबार छोड़ देते हैं क्योंकि वह समझते हैं हम ब्रह्म में लीन हो जायेंगे, इसलिए दुनिया से आसक्ति छोड़नी चाहिए। अभ्यास भी ऐसे करते होंगे। जाकर एकान्त में रहते हैं। वह हैं हठयोगी, तत्व ज्ञानी। समझते हैं ब्रह्म में लीन हो जायेंगे इसलिए ममत्व मिटाने के लिए घरबार को छोड़ देते हैं। वैराग्य आ जाता है। परन्तु फट से ममत्व नहीं मिटता। स्त्री, बच्चे आदि याद आते रहते हैं। यहाँ तो तुमको ज्ञान की बुद्धि से सब-कुछ भुलाना होता है। कोई भी चीज़ जल्दी नहीं भूलती। अभी तुम यह बेहद का संन्यास करते हो। याद तो सब संन्यासियों को भी रहती है। परन्तु बुद्धि से समझते हैं हमको ब्रह्म में लीन होना है, इसलिए हमको देह भान नहीं रखना है। वह है हठयोग मार्ग। समझते हैं हम यह शरीर छोड़ ब्रह्म में लीन हो जायेंगे। उनको यह पता ही नहीं कि हम शान्तिधाम में कैसे जा सकते। तुम अब जानते हो हमको अपने घर जाना है। जैसे विलायत से आते हैं तो समझते हैं हमको बाम्बे जाना है वाया….। अभी तुम बच्चों को भी पक्का निश्चय है। बहुत कहते हैं इनकी पवित्रता अच्छी है, ज्ञान अच्छा है, संस्था अच्छी है। मातायें मेहनत अच्छी करती हैं क्योंकि अथक हो समझाती हैं। अपना तन-मन-धन लगाती हैं इसलिए अच्छी लगती हैं। परन्तु हम भी ऐसा अभ्यास करें, यह ख्याल भी नहीं आयेगा। कोई विरला निकलता है। वह तो बाप भी कहते हैं कोटों में कोई अर्थात् जो तुम्हारे पास आते हैं, उनमें से कोई निकलता है। बाकी यह पुरानी दुनिया ख़त्म होने वाली है। तुम जानते हो अब बाप आया हुआ है। साक्षात्कार हो न हो, विवेक कहता है बेहद का बाप आये हैं। यह भी तुम जानते हो बाप एक है, वही पारलौकिक बाप ज्ञान का सागर है। लौकिक को कभी ज्ञान का सागर नहीं कहेंगे। यह भी बाप ही आकर तुम बच्चों को अपना परिचय देते हैं। तुम जानते हो अब पुरानी दुनिया ख़त्म होने वाली है। हमने 84 जन्मों का चक्र पूरा किया। अभी हम पुरुषार्थ करते हैं वापिस सुखधाम जाने का वाया शान्तिधाम। शान्तिधाम तो जरूर जाना है। वहाँ से फिर यहाँ वापिस आना है। मनुष्य तो इन बातों में मूँझे हुए हैं। कोई मरता है तो समझते हैं वैकुण्ठ गया। परन्तु वैकुण्ठ है कहाँ? यह वैकुण्ठ का नाम तो भारतवासी ही जानते हैं और धर्म वाले जानते ही नहीं। सिर्फ नाम सुना है, चित्र देखे हैं। देवताओं के मन्दिर आदि बहुत देखे हैं। जैसे यह देलवाड़ा मन्दिर है। लाखों-करोड़ों रूपया खर्चा करके बनाया है, बनाते ही रहते हैं। देवी-देवताओं को वैष्णव कहेंगे। वे विष्णु की वंशावली हैं। वो तो हैं ही पवित्र। सतयुग को कहा जाता है पावन दुनिया। यह है पतित दुनिया। सतयुग के वैभव आदि यहाँ होते नहीं। यहाँ तो अनाज आदि सब तमोप्रधान बन जाते हैं। स्वाद भी तमोप्रधान। बच्चियाँ ध्यान में जाती हैं, कहती हैं हम शूबीरस पीकर आई। बहुत स्वाद था। यहाँ भी तुम्हारे हाथ का खाते हैं तो कहते हैं बहुत स्वाद है क्योंकि तुम अच्छी रीति बनाती हो। सब दिल भरकर के खाते हैं। ऐसे नहीं, तुम योग में रहकर बनाते हो तब स्वादिष्ट होता है! नहीं, यह भी प्रैक्टिस होती है। कोई बहुत अच्छा भोजन बनाते हैं। वहाँ तो हर चीज़ सतोप्रधान होती है, इसलिए बहुत त़ाकत रहती है। तमोप्रधान होने से त़ाकत कम हो जाती है, फिर उनसे बीमारियाँ दु:ख आदि भी होता रहता है। नाम ही है दु:खधाम। सुखधाम में दु:ख की बात ही नहीं। हम इतने सुख में जाते हैं, जिसको स्वर्ग का सुख कहा जाता है। सिर्फ तुमको पवित्र बनना है, सो भी इस जन्म के लिए। पीछे का ख्याल मत करो, अभी तो तुम पवित्र बनो। पहले तो विचार करो – कहते कौन हैं! बेहद के बाप का परिचय देना पड़े। बेहद के बाप से सुख का वर्सा मिलता है। लौकिक बाप भी पारलौकिक बाप को याद करते हैं। बुद्धि ऊपर चली जाती है। तुम बच्चे जो निश्चयबुद्धि पक्के हो, उन्हों के अन्दर रहेगा कि इस दुनिया में हम बाकी थोड़े दिन हैं। यह तो कौड़ी मिसल शरीर है। आत्मा भी कौड़ी मिसल बन पड़ी है, इसको वैराग्य कहा जाता है।

अभी तुम बच्चे ड्रामा को जान चुके हो। भक्ति मार्ग का पार्ट चलना ही है। सब भक्ति में हैं, ऩफरत की दरकार नहीं। संन्यासी खुद ऩफरत दिलाते हैं। घर में सब दु:खी हो जाते हैं, वह खुद अपने को जाकर थोड़ा सुखी करते हैं। वापिस मुक्ति में कोई जा नहीं सकते। जो भी कोई आये हैं, वापिस कोई भी गया नहीं है। सब यहाँ ही हैं। एक भी निर्वाणधाम वा ब्रह्म में नहीं गया है। वह समझते हैं फलाना ब्रह्म में लीन हो गया। यह सब भक्ति मार्ग के शास्त्रों में है। बाप कहते हैं इन शास्त्रों आदि में जो कुछ है, सब भक्तिमार्ग है। तुम बच्चों को अभी ज्ञान मिल रहा है इसलिए तुम्हें कुछ भी पढ़ने की दरकार नहीं है। परन्तु कोई-कोई ऐसे हैं जिनमें फिर नॉविल्स आदि पढ़ने की आदत है। ज्ञान तो पूरा है नहीं। उन्हें कहा जाता है कुक्कड़ ज्ञानी। रात को नॉविल पढ़कर नींद करते हैं तो उनकी गति क्या होगी? यहाँ तो बाप कहते हैं जो कुछ पढ़े हो सब भूल जाओ। इस रूहानी पढ़ाई में लग जाओ। यह तो भगवान् पढ़ाते हैं, जिससे तुम देवता बन जायेंगे, 21जन्मों के लिए। बाकी जो कुछ पढ़े हो वह सब भुलाना पड़े। एकदम बचपन में चले जाओ। अपने को आत्मा समझो। भल इन ऑखों से देखते हो परन्तु देखते भी नहीं देखो। तुम्हें दिव्य दृष्टि, दिव्य बुद्धि मिली है तो समझते हो यह सारी पुरानी दुनिया है। यह ख़त्म हो जानी है। यह सब कब्रिस्तानी हैं, उनसे क्या दिल लगायेंगे। अभी परिस्तानी बनना है। तुम अब कब्रिस्तान और परिस्तान के बीच में बैठे हो। परिस्तान अभी बन रहा है। अभी बैठे हैं पुरानी दुनिया में। परन्तु बीच में बुद्धि का योग वहाँ चला गया है। तुम पुरुषार्थ ही नई दुनिया के लिए कर रहे हो। अभी बीच में बैठे हो, पुरुषोत्तम बनने के लिए। इस पुरुषोत्तम संगमयुग का भी किसको पता नहीं है। पुरुषोत्तम मास, पुरुषोत्तम वर्ष का भी अर्थ नहीं समझते। पुरुषोत्तम संगमयुग को टाइम बहुत थोड़ा मिला हुआ है। देरी से युनिवर्सिटी में आयेंगे तो बहुत मेहनत करनी पड़ेगी। याद बहुत मुश्किल ठहरती है, माया विघ्न डालती रहती है। तो बाप समझाते हैं यह पुरानी दुनिया ख़त्म होने वाली है। बाप भल यहाँ बैठे हैं, देखते हैं परन्तु बुद्धि में है यह सब ख़त्म होने वाला है। कुछ भी रहेगा नहीं। यह तो पुरानी दुनिया है, इनसे वैराग्य हो जाता है। शरीरधारी भी सब पुराने हैं। शरीर पुराना तमोप्रधान है तो आत्मा भी तमोप्रधान है। ऐसी चीज़ को हम देखकर क्या करें। यह तो कुछ भी रहना नहीं है, उनसे प्रीत नहीं। बच्चों में भी बाप की दिल उनसे लगती है जो बाप को अच्छी रीति याद करते हैं और सर्विस करते हैं। बाकी बच्चे तो सब हैं। कितने ढेर बच्चे हैं। सब तो कभी देखेंगे भी नहीं। प्रजापिता ब्रह्मा को तो जानते ही नहीं हैं। प्रजापिता ब्रह्मा का नाम तो सुना है परन्तु उनसे क्या मिलता है – यह कुछ भी पता नहीं है। ब्रह्मा का मन्दिर है, दाढ़ी वाला दिखाया है। परन्तु उनको कोई याद नहीं करता है क्योंकि उनसे वर्सा मिलना नहीं है। आत्माओं को वर्सा मिलता है एक लौकिक बाप से, दूसरा पारलौकिक बाप से। प्रजापिता ब्रह्मा को तो कोई जानते ही नहीं। यह है वन्डरफुल। बाप होकर वर्सा न दे तो अलौकिक ठहरा ना। वर्सा होता ही है हद का और बेहद का। बीच में वर्सा होता नहीं। भल प्रजापिता कहते हैं परन्तु वर्सा कुछ भी नहीं। इस अलौकिक बाप को भी वर्सा पारलौकिक से मिलता है तो यह फिर देंगे कैसे! पारलौकिक बाप इनके थ्रू देता है। यह है रथ। इनको क्या याद करना है। इनको खुद भी उस बाप को याद करना पड़ता है। वह लोग समझते हैं यह ब्रह्मा को ही परमात्मा समझते हैं। परन्तु हमको वर्सा इनसे नहीं मिलता है, वर्सा तो शिवबाबा से मिलता है। यह तो बीच में दलाल रूप है। यह भी हमारे जैसा स्टूडेण्ट है। डरने की कोई बात नहीं।

बाप कहते हैं इस समय सारी दुनिया तमोप्रधान है। तुमको योगबल से सतोप्रधान बनना है। लौकिक बाप से हद का वर्सा मिलता है। तुमको अब बुद्धि लगानी है बेहद में। बाप कहते हैं सिवाए बाप से और किससे भी कुछ मिलना नहीं है, फिर भल देवतायें क्यों न हों। इस समय तो सब तमोप्रधान हैं। लौकिक बाप से वर्सा तो मिलता ही है। बाकी इन लक्ष्मी-नारायण से तुम क्या चाहते हो? वह लोग तो समझते हैं यह अमर हैं, कभी मरते नहीं हैं। तमोप्रधान बनते नहीं हैं। लेकिन तुम जानते हो जो सतोप्रधान थे वही तमोप्रधान में आते हैं। श्रीकृष्ण को लक्ष्मी-नारायण से भी ऊंच समझते हैं क्योंकि वे फिर भी शादी किये हुए हैं। श्रीकृष्ण तो जन्म से ही पवित्र है इसलिए श्रीकृष्ण की बहुत महिमा है। झूला भी श्रीकृष्ण को झुलाते हैं। जयन्ती भी श्रीकृष्ण की मनाते हैं। लक्ष्मी-नारायण की क्यों नहीं मनाते हैं? ज्ञान न होने के कारण श्रीकृष्ण को द्वापर में ले गये हैं। कहते हैं गीता ज्ञान द्वापर युग में दिया है। कितना कठिन है किसको समझाना! कह देते हैं ज्ञान तो परम्परा से चला आ रहा है। परन्तु परम्परा भी कब से? यह कोई नहीं जानते। पूजा कब से शुरू हुई यह भी नहीं जानते हैं इसलिए कह देते रचता और सृष्टि के आदि-मध्य-अन्त को नहीं जानते हैं। कल्प की आयु लाखों वर्ष कहने से परम्परा कह देते हैं। तिथि-तारीख कुछ भी नहीं जानते। लक्ष्मी-नारायण का भी जन्म दिन नहीं मनाते। इसको कहा जाता है अज्ञान अंधियारा। तुम्हारे में भी कोई यथार्थ रीति इन बातों को जानते नहीं। तब तो कहा जाता है – महारथी, घोड़ेसवार और प्यादे। गज को ग्राह ने खाया। ग्राह बड़े होते हैं, एकदम हप कर लेते हैं। जैसे सर्प मेढ़क को हप करते हैं।

भगवान् को बागवान, माली, खिवैया क्यों कहते हैं? यह भी तुम अभी समझते हो। बाप आकर विषय सागर से पार ले जाते हैं, तब तो कहते हैं नैया मेरी पार लगा दो। तुमको भी अभी पता पड़ा है कि हम कैसे पार जा रहे हैं। बाबा हमको क्षीर सागर में ले जाते हैं। वहाँ दु:ख-दर्द की बात नहीं। तुम सुनकर औरों को भी कहते हो कि नैया को पार करने वाला खिवैया कहते हैं – हे बच्चे, तुम सब अपने को आत्मा समझो। तुम पहले क्षीरसागर में थे, अब विषय सागर में आ पहुँचे हो। पहले तुम देवता थे। स्वर्ग है वण्डर ऑफ वर्ल्ड। सारी दुनिया में रूहानी वण्डर है स्वर्ग। नाम सुनकर ही खुशी होती है। हेविन में तुम रहते हो। यहाँ 7 वण्डर्स दिखाते हैं। ताजमहल को भी वण्डर कहते हैं परन्तु उसमें रहने का थोड़ेही है। तुम तो वण्डर ऑफ वर्ल्ड का मालिक बनते हो। तुम्हारे रहने के लिए बाप ने कितना वण्डरफुल वैकुण्ठ बनाया है, 21 जन्मों के लिए पद्मापद्मपति बनते हो। तो तुम बच्चों को कितनी खुशी होनी चाहिए। हम उस पार जा रहे हैं। अनेक बार तुम बच्चे स्वर्ग में गये होंगे। यह चक्र तुम लगाते ही रहते हो। पुरुषार्थ ऐसा करना चाहिए जो नई दुनिया में हम पहले-पहले आयें। पुराने मकान में जाने की दिल थोड़ेही होती है। बाबा ज़ोर देते हैं पुरुषार्थ कर नई दुनिया में जाओ। बाबा हमें वण्डर ऑफ वर्ल्ड का मालिक बनाते हैं। तो ऐसे बाप को हम क्यों नहीं याद करेंगे। बहुत मेहनत करनी है। इसको देखते भी नहीं देखो। बाप कहते हैं भल मैं देखता हूँ, परन्तु मेरे में ज्ञान है – मैं थोड़े रोज़ का मुसाफिर हूँ। वैसे तुम भी यहाँ पार्ट बजाने आये हो इसलिए इससे ममत्व निकाल दो। अच्छा!

मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमॉर्निग। रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।

धारणा के लिए मुख्य सार:-

1. रूहानी पढ़ाई में सदा बिजी रहना है। कभी भी नॉवेल्स आदि पढ़ने की गंदी आदत नहीं डालनी है, अब तक जो कुछ पढ़ा है उसे भूल बाप को याद करना है।

2. इस पुरानी दुनिया में स्वयं को मेहमान समझकर रहना है। इससे प्रीत नहीं रखनी है, देखते भी नहीं देखना है।

वरदान:-हिम्मत और उमंग-उत्साह के पंखों से उड़ती कला में उड़ने वाले तीव्र पुरुषार्थी भव
उड़ती कला के दो पंख हैं – हिम्मत और उमंग-उत्साह। किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए हिम्मत और उमंग-उत्साह बहुत जरूरी है। जहाँ उमंग-उत्साह नहीं होता वहाँ थकावट होती है और थका हुआ कभी सफल नहीं होता। वर्तमान समय के अनुसार उड़ती कला के सिवाए मंजिल पर पहुंच नहीं सकते क्योंकि पुरुषार्थ एक जन्म का और प्राप्ति 21 जन्म के लिए ही नहीं सारे कल्प की है। तो जब समय की पहचान स्मृति में रहती है तो पुरुषार्थ स्वत: तीव्रगति का हो जाता है।
स्लोगन:-सर्व की मनोकामनायें पूर्ण करने वाले ही कामधेनु हैं।